-: एक प्रेमलता कुम्भलाई सी :-
हर शाम का वह पहर
जब हर किसी में होड होती है
जल्दी जाने को अपना घर
शहर की तेज रफ़्तार जिन्दगी में
होती नहीं किसी को तनिक फ़िकर
एक प्रेमलता के दर्द की
जिसका पत्थर ही बना हमसफ़र
खडी है सहारे जिसके आजतक
निहारती रही अपलक उसकी डगर
जो किया था प्रेमालाप कभी
इसी जगह इसी मोड पर
प्रेमलता कुम्भला सी गई अब
प्रियतम के दीदार को एक नजर
मिली न छाया स्नेह का उसे
झुलसती प्रतीक्षा में दिनभर
रजनी आई पास जब
साथ लेकर जख्में जिगर
विह्वल हो गई वह अचानक
थरथरा उठे व्याकुल अधर
पर कह न सकी दर्द दिल का
रोती रही दोनों रातभर
सुबह होते ही ये अश्रुकण
शबनम बन गये बिखर
रात साथ छोड चली गई
संग रह गया फिर वही पत्थर
~प्रकाश यादव "निर्भीक"
Wednesday, April 26, 2006
-:रेत:-
रेत का ढेर है
यह जिन्दगी
जिसमें अनगिनत
सपनों के घरौंदें
रेत से, रेत पर
बनते और ढहते हैं
पलभर में
हकीकत की दुनियां से
बेहद परे
अपनी कल्पना लोक में
सपने सारे
सच ही तो लगते हैं
इस छोटी सी
समय सीमा के भीतर
सच्चाई के सामने आने तक
इन नाजुक सपनों को
क्या पता कि
रेत कभी भी अपना
साकार रुप धारण नहीं करता
बल्कि जितनी ही जतन से
रखों उन्हें समेटकर
मुट्ठी में
वह उतनी ही तेजी से
फिसलता चला जाता है
मुट्ठी से
और कर जाता है खाली
मुट्ठी को
एक बार फिर
टुटे हुए
सपनों के साथ...
~प्रकाश यादव "निर्भीक"
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