Friday, October 21, 2011


तेरे महफ़िल में कभी जाने की
अपनी कोई तमन्ना तो न थी

तेरे अदाओं ने आज फिर से वही

मेरे बढ़ते कदमों को रोक दिए




जख्म जिगर पे कभी उकरते नहीं

दर्दे ए लहू दिल के कभी निकलते नहीं

गम छुपाकर अपने हंसी को दे दिया

फिर से मिलने की मुहरत निकलते नहीं




दूर होने की जुर्रत तुमसे जेहन में थी

तेरी नफरत ने रुकने को मजबूर कर दिया

चाहत की कोई तोहफा कभी मिली नहीं

तेरी बेबफाई ने जख्म को हरा कर दिया



मरहम लगाने की अपनी फितरत नहीं
अश्क पीने की अपनी आदत बन गई

वफ़ा ही करना तो सीखा है अबतलक

बेबफाई में जीने की चाहत हो गई

Saturday, September 10, 2011

एक सहर होते ही

जीवन में-
एक सहर होते ही,
एक शहर छोड दिया,
जिसकी वात्सल्यमयी आँचल,
समेटे रखा था मुझे,
इतने दिनों तक,
दोस्तों की दोस्ती का,
वह यादगार क्षण,
जो याद आती है मुझे,
अब बार-बार,
माँ की ममता,
बाबुजी का स्नेह और,
भाईयों का असीम प्यार,
जिसका हरेक शब्द,
छू लेता है दिल को,
अतीत के हर यादों को,
अब स्मृति के किताबों में,
कैदकर मैं आ गया,
एक अनजान शहर,
एक अजनबी बनकर,
अपरिचितों के बीच,
परिचितों से काफी दूर,
अब ये अपरिचित,
होते जा रहे हैं परिचित,
एक नये अध्याय के साथ,
इस नये जीवन में,
अपने अपने रुपों को लेकर...

प्रकाश यादव 'निर्भीक'

Wednesday, May 25, 2011

जख्म जो ये दिल पे लगे हैं
कुरेदकर अब उसे क्या करूँ
फोफले जो ये गम के उगे हैं
मरहम लगाकर उसमें क्या करूँ

खुद का सिक्का ही खोटा निकला
किसी पे इल्जाम लगाकर क्या करूँ
डूब ही गई जब मंजिल का नैया
दरिया में गोता लगाकर क्या करूँ

शक है जब मेरी काबिलियत पर
तो उसे आइना दिखाकर क्या करूँ
था जब तक़दीर में काटों पे चलना
तो गुलशन लगाकर ही क्या करूँ

सफ़र में है जब तनहा ही रहना
तो किसी महफ़िल में ही क्या करूँ
जुगनुओं को ताकते ही रात काटना
तो तमन्ना ए चिराग का क्या करूँ

राह जब कभी रूकती ही नहीं
थका राही ही बनकर क्या करूँ
दोस्तों की दुआ है जब साथ अपना
तो किसी की तोहमत का क्या करूँ

प्रकाश यादव "निर्भीक"