Wednesday, August 26, 2015

-: मौन :-





तुम्हारी
खामोशी को
क्या समझूँ मैं
मौन स्वीकृति
या फिर
नफरत की ज्वाला
जो बंद है
तुम्हारे अंदर
भीतर ही भीतर
जला रही हो
खूद को
या फिर
महका रही हो
मन आँगन को
मिलन की आस में
चुप हो जाना
तुम्हारा
कचोटता है
मेरे मन को
कहीं कोई
चुभन तो नहीं
मेरे शब्द से
जो निःशब्द कर
खरोच दिया
तुम्हारे कोमल
हृदयस्थल को
कह दो वजह
खुलकर अपनी
ताकि झांक सकूँ
दिल के अंदर
वो ज़ख्म या कली
इनकार व इकरार की ..........
            प्रकाश यादव “निर्भीक”
            बड़ौदा – 25-08-2015

-: देखती दर्पण में :-





बैठकर खूद
प्रतिबिंब सामने
निहारती मुख    
सँवरती हुई
स्वयं इतराकर
तिरछी नजरों से
देखती दर्पण में
आभा अपनी
जो मनोरम
सौम्य सुंदर है
सोचती वह
रह रहकर
क्या यह सच है
कि देखता है
कोई अक्सर
झांककर उसे और
उसकी हँसी को
जो उन्मुक्त व
निश्चल है
उसकी अदा जो
मनमोहक और
खूबसूरत है  
मन ही मन
यह सोच -
फिर शरमाकर
हथेलियों से
झाँप लेती है
लाल मुखमंडल
दुनियाँ की नजरों से
सकुचाकर
अपने भोलेपन की
अनुपम सादगी में ............

                  प्रकाश यादव “निर्भीक”
                  बड़ौदा – 25-08-2015

-:सफर चाहता है:-





ऐसे न देखो
छुपकर
खंभे की ओट से
तुम्हें देखने को
जी और
तरस जाता है
न चिढ़ाओ
हँसी की लबरेज से
करीब जाने को
मन मचल जाता है
भोली भाली
सीधी हो कितनी
देख तुम्हें बादल
योंहि बरस जाता है
लतिका लपेट
रखी हो संग अपने
लिपट जाने को
जिगर चाहता है
इंद्रधनुषी कपड़ो में
समेटी हो खुद को
अनायास आँखें भी
वही अटक जाते हैं  
कहाँ से लायी हो
कांतिमय बहार
साथ अपनी
चकोर बन
निहारने को ये
नजर चाहता है
मालूम तुम्हें पाना
मुमकिन नहीं
कुछ पल ही
संग जीने को
जीवन सफर चाहता है ................
            प्रकाश यादव “निर्भीक”
            बड़ौदा – 24-08-2015