Friday, July 29, 2016

-:बाबरा बादल :-


बादल बन बाबरा
मंडरा रहा है इर्द गिर्द
ऊंचे पर्वतों में      
गगनचुंबी तरुवर के
हरीतिमा आगोश में
मधुर स्पर्श लेकर
ढूंढ रहा है बेसब्री से
अपनी प्रियतमा को 
मधुमास की मादकता में
मदहोश होकर
एक झलक पाने को
व्याकुल है विरह मन
मिलन की मिठास में
मेघाच्छादित अंबर
भिगो रहा है तन बदन
कलरव गान विहग के
गूंज रही है घाटियों में
झरना के झर झर
कर्णप्रिय ध्वनि के साथ
और उधर से आ रही है
हरे रंग के वसन में
सज धज कर कामिनी
भीगती हुई धीरे धीरे 
झमाझम बारिश के
शीतल बूंदों में 
अपने प्रियतम से
मिलने को शर्माती हुई
न देखते हुए भी
दिख जाती है एक दूसरे को
चेहरे में प्रस्फुटित आभा
प्राकृतिक छटा के बीच
                  प्रकाश यादव “निर्भीक”

                  बड़ौदा – 16-07-2016 

-:अधूरी मुलाक़ात:-


आ जाना फिर
कभी मिलने तुम  
मुझसे उसी जगह
उसी मोड पर
जहां से शुरू हुई थी
सफर की मधुर शुरुवात
तुम्हारे साथ   
अनजान राहों में
खोल देना गठरी
अपनी नाराजगी की
बता देना दिल में
उबल रहे जज़्बातों को
क्योंकि ठहरा हुआ पानी
अक्सर निर्मल नहीं होता
बह लेने दो नीर
अपने नयनों से
खारे आँसू बनकर
क्योंकि ---
समंदर के जल से
कभी प्यास नहीं बुझती
मगर हाँ --
सुन लेना थोड़ी सी
बात मेरी भी
जो अनकही रह गई है
हमारे दरमियान
अधूरी मुलाक़ात में
जो लबों तक आकर
रुक गई अक्सर
कहते कहते अपनी तमन्ना
किसी सुनहरे पल के
इंतिज़ार में ......
                  प्रकाश यादव “निर्भीक”

                  बड़ौदा – 12-07-2016 

-:प्रकृति के संग :-


शुरू हो गई है रोपणी
धान की खेतों में
आषाढ़ के आगमन से
हरीतिमा लेकर
आई है लहलहाते पौधे
ग्रीष्म की प्रचंडता के बाद
मुसहरी टोला से आई टोली
कतार में रोपणी करते
सुर में गा रही है 
लय में बरसाती गीत 
टप टप बारिश के
बूंदों की मधुर ध्वनि के साथ
कहीं दूर गये अपने प्रिय को
बेतार संदेश भेजकर
फुदक रहा है बछड़ा
अपनी माँ के इर्द गिर्द
बगुला भी बढ़ा रहा है
कदम दर कदम
हलवाहा के पीछे तन्मयता से  
ताकि कहीं चूक न जाए निवाला
गर्जन मेघों के
दे जाती है अपनी उपस्थिति
अंधकारमय दिन में
कौंधती बिजली के साथ
सपने बुनते कृषक अरमानों के
अनिश्चताओं के बीच
हाँकता है बैलों को
होले से बात करते हुए
मानो सुख दुख का साथी हो
ठिठुरते हुए खुद को पाकर
सुखद भविष्य की ओर  
प्रकृति के संग
घनघोर बारिश में
                  प्रकाश यादव “निर्भीक”
                  बड़ौदा – 05-07-2016


-:रजनीगंधा:-


झरना झर झर झरे
भिंगों कर बदन तेरे 
करके स्नेहिल स्पर्श
निर्मल हो नीर बहे

मादकता लेकर लटों में 
टप टप जो बूंद गिरे
पी लूँ मैं मधुमास में
अधरों से मधु मिले

मीन कामिनी सी काया
अदा तेरे मृगनयनों के
कैसे आगे चले पथिक
अप्सरा देख मुनि भटके

संगमरमर संग हो निखरा  
उन्मुक्त हो जल बिखरा
छींट पड़ा जा राहगीर पर
आतुरता से वह जब गुजरा

बिन घटा जब बारिश हुई
तन मन में जो कशिश हुई
चहक उठी गूंज खगों की
महसूस जब वो तपिश हुई

छूकर पवन मस्तानी चली
देख देख फिर सांझ ढली
रजनीगंधा महके रात्रि में
“निर्भीक” को वो मोह चली
                  प्रकाश यादव “निर्भीक”
                  बड़ौदा – 05-07-2016


-:कल्पनालोक में :-


आओ जी लें जीभर
अपनी हसरतों को
कल्पनालोक में
क्योंकि यहाँ कोई
रोक टोक नहीं होता

हकीकत की दुनियाँ में
कांटे चुभते है अक्सर
क्योंकि गुलशन में
फूलों के खुशबूओं को रौंदने
खड़े हजार होते है   

यह सच है सपने
सच नहीं होते अक्सर
मगर पलभर ही सही
स्वप्न में जी लेता है
कोई अपनी पूरी जिंदगी

मुकद्दर में ख्वाबों को
मिले जगह जरूरी नहीं
मगर ख्वाबों में
मुकद्दर को संवार ले
यह हमारे वश में है

चलो बुन ले एक चादर
कल्पना के धागों से
ओढ़कर सो जाय
सपनों की दुनियाँ में  
हकीकत से कवि क्या वास्ता ...

आओ जी ले जीभर
अपनी हसरतों को .......

                         प्रकाश यादव “निर्भीक”

-:मधुमास में:-



बादलों को भेजकर
अपने आंसुओं के संग
ताकती विरहन राह को
पिया दरश को हर क्षण

बारिश में भिंगोकर
गोरी अपना तन बदन
आतुर है मिलन को
पिया के संग अंग अंग

कोयल करे कुहु कुहु
पायल बाजे छन छन
सांझ पड़े आँगन में
उद्वेलित हुआ हृदय मन

कौन जाने दर्द विरह
रात कटी दिन तरह
पर होते तो उड़ जाती
तड़पती न कभी इस तरह

लौट आओ गाँव पिया
कहती रुंधी सूनी जिया
चकचौंद शहर ने उनसे
सबकुछ है छिन लिया

लेकर गंध मधु पुष्प की
भँवरा भी आया मधुमास में
देख दृश्य मयूरी मन मचले
ताकती रहती इसी आस में
            प्रकाश यादव “निर्भीक”
            बड़ौदा – 04-07-2016


-:मेरे जज़्बात:-


मत बांधो मुझे
शब्दों में 
बिखर जाने दो
मेरे अरमानों के
तरुण पत्तियों को
कोमल टहनियों से !
मत रोको कभी
मेरी बहती धारा को
किसी दरिया में
बहने दो उन्मुक्त होकर
अंगड़ाई लेते हुए !
समा जाऊँगी मैं भी  
एक रोज समंदर में
शिथिल होकर चुपचाप
कम से कम आज तो
यौवन की दहलीज लांघकर
खुले आसमान में  
जी लेने दो !
मेरे भी जज़्बात है
कोई पूछे तो कभी
मेरी भी है ख्वाहिशे
कोमल हृदय में
कोई झाँके तो सही !
हाँ मैं कविता हूँ
कवि के भावनाओं की
उसी में जीवंत रहने दो
मत बांधों मुझे शब्दों में
बनकर कविता अनवरत
अविरल प्रवाह में बहने दो
मत बांधों मुझे ..........
              प्रकाश यादव “निर्भीक”
              बड़ौदा – 24-06-2016


Thursday, June 23, 2016

-:बारिश का मौसम:-



बारिश का मौसम 
तेरा मुसकुराना 
ज़ुल्फों से टप टप 
बूंदों का गिरना 
खुला आमंत्रण 
नशीली आँखों से तेरे 
भींगा बदन और 
फिर तेरा इतराना 
कोयल की कुहु कुहु 
पवन मस्ताना 
खुशबू से महके 
बगिया कोना कोना 
चलो आज ढूँढे 
फिर वही आशियाना 
जहां पर दो पल का 
बना था ठिकाना 
बादल की गड़गड़ाहट 
बिजली का चमकना 
फिर बाहों में तेरा 
अनायास सिमटना 
स्पर्श की उष्णता में 
तेरा पिघल जाना 
नरम पखुड़ियों सा 
टूटकर बिखर जाना 
अधखुले होंठों की 
माधुरी मदिरा 
बरसाती घटा में 
तेरा खिलखिलाना 
बारिश का मौसम और 
तेरा मुसकुराना ....


प्रकाश यादव निर्भीक
बड़ौदा – 22-06-2016

-:अंगुलियों के सहारे :-


पकड़कर अंगुलियाँ
लड़खड़ाकर चला था
नन्हें कदमों से
गगन को छुआ था
न थी कुछ फिकर
न टूटे थे सपने
बाबूजी के संग जब
सफर पर चला था
शाम के पहर में
लेकर इंद्रधनुषी इरादे
समंदर किनारे मैं
पास में ही खड़ा था
वो बचपन की बातें
वो सतरंगी ख्वाहिशें
न होगी कभी पूरी
कभी न डर था
जीवन के गोधुली में
सितारे भी टूटे
जिंदंगी के संबल
वो सहारे भी छुटे
नरम सी अंगुलियों को
पकड़ने वाले
सफर में वो भी
अचानक ही रूठे 
आसमान को देखूँ
या समंदर में झांकू
भीगें पलकों से
अब कहाँ कहाँ खोजूँ
खड़ा हुआ था
कभी जिनके सहारे
उन्हीं अंगुलियों को मैं  
आज निःसहाय खड़ा हूँ
            प्रकाश यादव “निर्भीक “

                बड़ौदा – 15-06-2016 

-:सिसकती उम्मीदें:-


टूटता परिवार   
बिखरता समाज
उपेक्षित बुजुर्ग
कराहती बीमार माँ 
सिसकती उम्मीदें  
एक पिता की
खोजती निगाहें
उन सपनों को
जिनको सँजोये  
रखा बीत गए
बरस दर बरस
जीवन के आखिरी
पड़ाव की सीढ़ी तक
चिलचिलाती धूप में
जलाता रहा शरीर
ठंढक का अहसास लिए
सुखद भविष्य में
दुनियाँ के सुखों से वंचित
निःसहाय मजबूर बाप
धुएं में लिपटी
आसूओं को पीती मगर
चेहरे पर ममत्व को लेकर
जीती रही एक माँ
बिना किसी स्वार्थ के 
भौतिकता के आगोश में
जकड़ी वही उम्मीदें  
टूटती नजर आती है
आज के परिपेक्ष में
पश्चात्य संस्कृति से लिपटकर
यह भूलते हुये कि
कभी न कभी सबको
इस दौर से गुजरना है
            प्रकाश यादव “निर्भीक”

                बड़ौदा -15-06-2016