टूटता परिवार
बिखरता समाज
उपेक्षित बुजुर्ग
कराहती बीमार माँ
सिसकती उम्मीदें
एक पिता की
खोजती निगाहें
उन सपनों को
जिनको सँजोये
रखा बीत गए
बरस दर बरस
जीवन के आखिरी
पड़ाव की सीढ़ी तक
चिलचिलाती धूप में
जलाता रहा शरीर
ठंढक का अहसास लिए
सुखद भविष्य में
दुनियाँ के सुखों से
वंचित
निःसहाय मजबूर बाप
धुएं में लिपटी
आसूओं को पीती मगर
चेहरे पर ममत्व को लेकर
जीती रही एक माँ
बिना किसी स्वार्थ
के
भौतिकता के आगोश में
जकड़ी वही उम्मीदें
टूटती नजर आती है
आज के परिपेक्ष में
पश्चात्य संस्कृति से
लिपटकर
यह भूलते हुये कि
कभी न कभी सबको
इस दौर से गुजरना है
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा
-15-06-2016
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