पकड़कर अंगुलियाँ
लड़खड़ाकर चला था
नन्हें कदमों से
गगन को छुआ था
न थी कुछ फिकर
न टूटे थे सपने
बाबूजी के संग जब
सफर पर चला था
शाम के पहर में
लेकर इंद्रधनुषी इरादे
समंदर किनारे मैं
पास में ही खड़ा था
वो बचपन की बातें
वो सतरंगी ख्वाहिशें
न होगी कभी पूरी
कभी न डर था
जीवन के गोधुली में
सितारे भी टूटे
जिंदंगी के संबल
वो सहारे भी छुटे
नरम सी अंगुलियों को
पकड़ने वाले
सफर में वो भी
अचानक ही रूठे
आसमान को देखूँ
या समंदर में झांकू
भीगें पलकों से
अब कहाँ कहाँ खोजूँ
खड़ा हुआ था
कभी जिनके सहारे
उन्हीं अंगुलियों को मैं
आज निःसहाय खड़ा हूँ
प्रकाश यादव “निर्भीक “
बड़ौदा – 15-06-2016
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