मत बांधो मुझे
शब्दों
में
बिखर जाने दो
मेरे अरमानों
के
तरुण पत्तियों
को
कोमल टहनियों
से !
मत रोको कभी
मेरी बहती
धारा को
किसी दरिया
में
बहने दो
उन्मुक्त होकर
अंगड़ाई लेते
हुए !
समा जाऊँगी मैं
भी
एक रोज समंदर
में
शिथिल होकर
चुपचाप
कम से कम आज
तो
यौवन की दहलीज
लांघकर
खुले आसमान
में
जी लेने दो !
मेरे भी
जज़्बात है
कोई पूछे तो
कभी
मेरी भी है
ख्वाहिशे
कोमल हृदय में
कोई झाँके तो
सही !
हाँ मैं कविता
हूँ
कवि के
भावनाओं की
उसी में जीवंत
रहने दो
मत बांधों
मुझे शब्दों में
बनकर कविता
अनवरत
अविरल प्रवाह
में बहने दो
मत बांधों
मुझे ..........
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 24-06-2016
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