Saturday, September 10, 2011

एक सहर होते ही

जीवन में-
एक सहर होते ही,
एक शहर छोड दिया,
जिसकी वात्सल्यमयी आँचल,
समेटे रखा था मुझे,
इतने दिनों तक,
दोस्तों की दोस्ती का,
वह यादगार क्षण,
जो याद आती है मुझे,
अब बार-बार,
माँ की ममता,
बाबुजी का स्नेह और,
भाईयों का असीम प्यार,
जिसका हरेक शब्द,
छू लेता है दिल को,
अतीत के हर यादों को,
अब स्मृति के किताबों में,
कैदकर मैं आ गया,
एक अनजान शहर,
एक अजनबी बनकर,
अपरिचितों के बीच,
परिचितों से काफी दूर,
अब ये अपरिचित,
होते जा रहे हैं परिचित,
एक नये अध्याय के साथ,
इस नये जीवन में,
अपने अपने रुपों को लेकर...

प्रकाश यादव 'निर्भीक'