Wednesday, April 26, 2006

-: एक प्रेमलता कुम्भलाई सी :-

हर शाम का वह पहर
जब हर किसी में होड होती है
जल्दी जाने को अपना घर
शहर की तेज रफ़्तार जिन्दगी में
होती नहीं किसी को तनिक फ़िकर
एक प्रेमलता के दर्द की
जिसका पत्थर ही बना हमसफ़र
खडी है सहारे जिसके आजतक
निहारती रही अपलक उसकी डगर
जो किया था प्रेमालाप कभी
इसी जगह इसी मोड पर
प्रेमलता कुम्भला सी गई अब
प्रियतम के दीदार को एक नजर
मिली न छाया स्नेह का उसे
झुलसती प्रतीक्षा में दिनभर
रजनी आई पास जब
साथ लेकर जख्में जिगर
विह्वल हो गई वह अचानक
थरथरा उठे व्याकुल अधर
पर कह न सकी दर्द दिल का
रोती रही दोनों रातभर
सुबह होते ही ये अश्रुकण
शबनम बन गये बिखर
रात साथ छोड चली गई
संग रह गया फिर वही पत्थर


~प्रकाश यादव "निर्भीक"

3 comments:

seema gupta said...

Hi,

really great poetry fullof pain n wait for someone. combination of words arereally great.
Regards

शोभा said...

निर्भीक जी
अच्छा लिखते हैं आप-
हर शाम का वह पहर
जब हर किसी में होड होती है
जल्दी जाने को अपना घर
शहर की तेज रफ़्तार जिन्दगी में
होती नहीं किसी को तनिक फ़िकर
अति सुन्दर।

Unknown said...

thank u both of you