बड़ी ही मासूमियत से
आज एक प्रश्न पूछा
छ: वर्षीय अविरल ने
क्या पापा मैं भी
अलग रहूँगा आपसे
जैसे आप अलग हो
रहते हो मेरी दादी माँ से
सुनते ही ये शब्द
स्तब्ध हो गया मैं
कुछ क्षण के लिए
और देखता रहा उसे
जिसने झकझोर दिया
एक मासूम सा प्रश्न करके
क्या हम इतने
कर्तव्य विहीन हो गए
जीवन के आधुनिकता में
जहां एकल परिवार में
घूंटता है हक बचपन का
मरहूम रह जाते है बच्चे
अपने पारंपरिक रिश्तों के
अहमियत से
यह हमारी मजबूरी है
या अति आकांक्षाओं का परिणाम
जिसने हमारे कर्मों के साथ
बच्चों को भी अलग रखा
स्वाभाविक जीवन के गलियारों से
क्या हमारी यही
संस्कार और संस्कृति रही है
कि सिर्फ हम अपेक्षा रखते है
उन सब चीजों की
जो हम खुद करना
नहीं चाहते या फिर
मजबूरी में कर नहीं पाते
इस भागदौड़ भरी जिंदगी में ...
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा
05-05-2015
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