-:व्याकुल मन :-
व्यथित व्याकुल मन आतुर है कबसे
मन की वो बात करूँ तो अब किससे
दर्शन को अब तो ये नयन भी तरसे
चंचल चित तो अब विचलित हो बैठा,
ढाढ़स दे इस दिल को समझाया
नहीं है वो अब फिर क्यों रोया
चुप हैं जुबां और खामोश निगाहें
अश्रु ले क्यों फिर नयन ये बैठा,
है घर बार वही और है वो बैठक
नहीं रही अब वो पहले की रौनक
चलती सड़क से वो लौटने वाले
मुँह फेर बगल से क्यों चल बैठा,
हर शाम सुबह खबर को आतुर
बेखबर हो अब वो क्यों चल बैठा
है गज़ब नियम नश्वर जगत का
जो प्रिय हृदय हो उसे ले बैठा ,
है आस क्यों फिर पुनः मिलन को
झूठी दिलासा क्यों है अन्तर्मन को
सच स्वीकार क्यों नहीं फिर दिल को
“निर्भीक” जीवन फिर आकुल हो बैठा,
प्रकाश यादव
“निर्भीक”
बड़ौदा
01.04.2015
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