बैठकर खूद
प्रतिबिंब सामने
निहारती मुख
सँवरती हुई
स्वयं इतराकर
तिरछी नजरों
से
देखती दर्पण
में
आभा अपनी
जो मनोरम
सौम्य सुंदर
है
सोचती वह
रह रहकर
क्या यह सच
है
कि देखता है
कोई अक्सर
झांककर उसे
और
उसकी हँसी को
जो उन्मुक्त व
निश्चल है
उसकी अदा जो
मनमोहक और
खूबसूरत है
मन ही मन
यह सोच -
फिर शरमाकर
हथेलियों से
झाँप लेती है
लाल मुखमंडल
दुनियाँ की
नजरों से
सकुचाकर
अपने भोलेपन
की
अनुपम सादगी
में ............
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 25-08-2015
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