नीला
ये अंबर तू पहनकर
देखती
क्यों हो इस कदर
तुम
क्या जानो प्रीत प्रिया
बैठी
हो कहीं तू दूर शहर
खोजती
तुम्हें आतुर नजर
तेरा
स्नेहिल संग ये जिगर
कैसे
पाऊँ मैं प्यार तुम्हारा
सोचूँ
यही तो शाम ए सहर
वाणी
में तेरी गज़ब मुखर
आती
हो तुम नित्य निखर
कहो
कैसे रुकूँ खुदको इधर
बन
जाओ न तुम हमसफर
घूमती
बिम्ब तू मेरी नजर
ख़यालों
में आती है हर पहर
फिर
भूलूँ कैसे तुम ही बता
कब
जायेगा दूर यह पतझर
है
आस लिए आली डाल पे
आयेगी
बसंत फिर बाग में
मकरंद
लेगा फिर पराग से
कली
में छिपकर तब भ्रमर
निश्चल
हृदय व गुलबदन
होंठो
पर तेरी वचन मधुर
फिर
क्यों न डोले मन मेरा
है
मुझमें तुम्हारी जो असर
दुनियाँ
की तो परवाह नहीं
“निर्भीक”
खुद में है निडर
छोड़
आना तुम घर प्रिया
पकड़कर
तू मेरी प्रेम डगर
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 25-01-2016
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