चाँद ने
कितनी देर लगा दी आने में
मैं बेवजह
बैठा रहा योंहि मयखाने में
वो बेवफाई कर
चली गई घर से
मैं वफा कर
ताकता रहा जमाने में
अकड़ तो देखो कितनी है उसमें
उमर मेरी बीत
गई उसे रिझाने में
हुस्न का
जलवा ही तो है जहां में
लुट गए है कई
इसको सजाने में
कातिल अदा है
इनकी निगाहों की
खुद आ जाते
है लोग निशाने में
जरा संभलकर
चलना ये मेरे दोस्त
वक्त नहीं
लगता है इसे मिटाने में
लबों की हंसी
पर मत जाना कभी
आग लग चुकी
है कई आशियाने में
जुल्फें काली
है और रात भी काली
गिरफ्त में न
आना अनजाने में
“निर्भीक”
झुलसा है लौ में इसकी
फकत कह दी है
बात दोस्ताने में
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 28-01-2016
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