अनुपम है यह काया तेरी
निर्मल
निश्चल चित तेरी
क्यों न कोई
हो आसक्त
देख विहंगम
बदन सुनहरी
राधा बनकर आओ तू फिर
कृष्णा संग
तू वृन्दावन में
नाच उठेंगे
देख मयूर सभी
जैसे नाचे है
वो सावन में
धरा सी है हरियाली ओढ़े
अंगड़ाई लेकर
चलती रहती
यौवन है तेरी
गज़ब निराली
जैसे आ गई है
मौसम होली
नाम तेरा अब
लब पे रहता
जबसे देखा है
वो सूरत तेरी
मन आकुल सा
ही रहता है
पाऊँ कब मैं
छांव तुम्हारी
प्रणय निवेदन तुमसे करना
किसका नहीं ये
होगा सपना
आओगे तुम तो गुल
खिलेगा
सूना है ये
घर आँगन अपना
काश तुम हमसफर हो पाती
नींद चैन की
फिर आ जाती
वन वन फिर
भटकता क्यों
मृग नयनी गर
तू घर होती
शमा पर जला तो परवाना है
पागल दिल यह
तो दीवाना है
मत लो दिल से
“निर्भीक” को
कहने दो उसे
जो भी कहना है
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 01.02.2016
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