तुम शायद
रम गई होगी
अपनी दुनियाँ में
भूलकर मुझे
याद भी नहीं होगा
तुम्हें अब
तुम्हारा दिया हुआ
स्निग्ध पत्तों की
कुमुद छाया
जिसके तले
बैठ मैं और तुम
बुनते रहे अपने
संबंधो के चादर
तुम्हारे मखमली हाथों से
कितने मिलते थे
अपनी सारी ख्वाहिशें
और हरकतें
देखते ही बनती थी
तुम्हारे चेहरे की प्रभा
जब अनायास
मेरी अंगुलियाँ
उलझ जाती थी
तुम्हारे जुल्फों से
फिर अचानक
तबादला हो जाना
जिसे सुनकर
तुम बहुत रोयी थी
रात भर और
सूजी आँखें लेकर
आई थी मिलने
न चाहते हुए भी
तबके बिछड़े आजतक
तुम्हारा इंतिज़ार
कि तुम कभी कहोगी
हाँ तुम्हें नहीं कभी नहीं
भूली हूँ अभी तक ..................
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 24-07-2015
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