मैं
आया परदेश रे सजनी
छोड़
के प्यारा अपना देश
शौक
था या मेरी मजबूरी
तुम
बिन जिंदगी है अधूरी
दिन
में मैं काम से जकड़ा
रात
में नींद नहीं होती पूरी
मैं
आया परदेश.........
छुटा
गाँव का बाग बगीचा
मस्ती
का वो गली गलीचा
नहीं
कोई यहाँ चाची चाचा
सिमटा
है ये जीवन समूचा
मैं
आया परदेश.........
माँ
की ममता को तरसता
बाबूजी
का स्नेह न मिलता
भाइयों
जैसा वो प्यार कहाँ
हर
पल जीता मरता रहता
मैं
आया परदेश.........
होली
का वो रंग भी भुला
सावन
का वो झूला भुला
बना
मशीन जीवन सारा
अल्हड़
वो बचपन भी भुला
मैं
आया परदेश.........
जो
स्वाद सत्तू लिट्टी में
कहाँ
है वो तंदूरी भट्टी में
घर
का खाना प्यार भरा
खुशबू
है देश की मिट्टी में
मैं
आया परदेश.........
सज
के रहना सावन में
आऊँगा
में तेरे आँगन में
कुछ
नहीं इस परदेश में
“निर्भीक”
जीवन देश में
मैं
आया देश रे सजनी
छोड़
के पराया वो देश
प्रकाश
यादव “निर्भीक”
बड़ौदा
– 07-07-2015
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