प्रेम शिखा
बढ़ी थी कभी
प्रेम तरु की
समय के साथ
लगातार
अपने मधुर
यादों के
बगीचे में
प्रेमालाप के
सौंधी खूशबू
से
अतीत के उस
मिट्टी में
जहाँ कभी पड़ा
था
एक स्नेह बीज
आकर्षण का
आँखों की
दुनिया में
सींचा गया था
तब
मिलन की
अश्रु धारा
से
सतरंगी आसमां
के नीचे
साँसों के
गर्माहट के
आगोश में
अंकुरित हुआ
था
जीवन के पंच
तत्वो से
पल्लवित होने
को
मगर समय के
थपेड़े ने कर
दिया विवश
कुंभलाने को
अचानक
नन्ही सी
प्यारी
कोमल शिखा को
जो हरी थी कभी
“निर्भीक”
टहनियों में ..................
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 16-07-2015
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