ऐ चाँद तुम
रोज आते हो
शाम के वक्त
पीछे से चुपचाप
अपने प्रियतम को
शीतल छाव देने
जो खुद के ही
ताप में जलता है
दिनभर बेसुमार
और मरहूम रखता है
तुम्हें भी
अपने प्यार से
फिर भी तुम
सजती हो
पूनम रात में
सितारों के महफिल में
उनके लिए
बादल में छिप कर
झाँकती रहती हो
अक्सर -
बस एक दीदार को
कैसा है ये तुम्हारा
बेपनाह मोहब्बत
जो सिर्फ देना जनता है
सारी खुशी उसे
बिना किसी चाह के
जिसे चाहते हो
दिल की गहराई से
क्या धरा पर
मौजूद है ऐसा
नैसर्गिक प्रेम वृक्ष
जहाँ जी सकूँ
दो पल सुकून के
उनके कांतिमय
सानिध्य में
बेसुध होकर ..............
प्रकाश
यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 16-07-2015
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