Wednesday, June 03, 2015

-:आम का मंजर:-



-:आम का मंजर:-

कोयल की कुहु कुहु सुनकर
आई याद वो आम का मंजर
लेकर लबों में हंसी का खंजर
वो थी कमसिन कामिनी सुंदर

बलखाती उनकी लचकाती कमर
चंचल चित व हिरणी सी नजर
चलती रुकती देख इधर उधर
कहती नहीं कुछ मुख से मगर

लगती थी वो होकर आई शहर
भूली थी वो पनघट की डगर
जुल्फें थी मुख पे तितर बितर
न जाने किसका उस पे असर

ये प्यारा सा यौवन का पहर
दिल करता हर पल यही ठहर
देखा भी तो नहीं उसे जी भर
जाने को थी वो अति तत्पर

बसंत बयार के पत्ते झर झर
पायल की करती रुन झुन स्वर
कुछ कहने को होता ये जिगर
हो जाती वो ओझल छु मंतर

झुकी थी वो प्रेम तरु सकुचाकर
मंद मंद वो हंसी थी शरमाकर
उद्वेलित था ये हृदय घबराकर
बेकाबू था खुद ये बाला पाकर

हुई न थी मिलन करीब आकर
टूटी आस हुआ ये दिल पत्थर
“निर्भीक” साथ ऐसा था अक्सर
जब आया था आम का मंजर

                                          प्रकाश यादव “निर्भीक”
                                          बड़ौदा – 26-05-2015

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