क्यों इस तरह
तन्हा तन्हा सी
रहती हो
दिल की बात
जुबां से क्यों नहीं
कह देती हो
मुझे मालूम है
बिना बोले नहीं
रह सकती तुम कभी
फिर क्यों
गुमसुम हो यों
चुपचाप सी रहती हो
निकाल देती हो
मन का भढास
कभी रसोई में
रखे बेजान बर्तन पर
तो कभी मासूम
नासमझ बच्चों पर
उसे पढ़ाने के बहाने
तुम्हारी ये तन्हाई
सिर्फ तुम्हें ही नहीं
बल्कि मुझे भी
मजबूर कर देती है
तन्हा रहने को
तुम्हारी तरह
न चाहते हुए भी
होठों पे आए हंसी को
क्यों रोक लेती हो
दांतों तले दबाकर
खुलकर आने दो
और कह दो एक बार
आँखों में आंखे डालकर
अपनी तन्हाई को
कि तन्हा नहीं रह सकते
हम कभी एक दूजे से ............
प्रकाश
यादव “निर्भीक”
बड़ौदा
– 23-06-2015
No comments:
Post a Comment