Friday, June 19, 2015

-: आतुर निगाहें:-




अब गाँव के   
सुधन काका नहीं रहे
जो मेरे घर पहुँचते ही
स्कूल से -
आ जाया करते थे
सारा काम छोड़ कर
हाल चाल पूछने  
बैठ जाया करते थे
बाबूजी की बगल में
इत्मीनान से
चाय की चुस्की लेते हुये
बारीकी से पूछ डालते थे
सारी बाते पढ़ाई की
मानो ऐसा सब कुछ
जान लेना चाहते हो
पलभर में
जबकि काला अक्षर
भैंस बराबर था उनके लिए
मगर आत्मीयता का ज्ञान
जो सारे ज्ञानों से बढ़कर है
था उनके अंतर्मन में
बीड़ी के कश में
सफ़ेद धुआँ के साथ
जीता वो फकीरी जिंदगी
कितनी अच्छी थी
इस शहर की
बनावटी जीवन शैली से
जिसमें मानवता का कोई
अंश न बचा हो
बस होड़ लगी है सबमें
खुद को ऊंचा दिखाने की
प्रेम की बगिया में
बस कांटे ही लगे है
हर तरफ ईर्ष्या व नफरत के
वक्त कहाँ किसी को
कुछ पल गुजारे संग
सुधन काका का वो
निःस्वार्थ भरा प्यार सा  
जो ये दिल अब भी
खोजता है आतुर निगाहों से ............
                                  प्रकाश यादव “निर्भीक”
                                बड़ौदा – 16-06-2015      

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