रात कटती है मेरी अक्सर तेरी यादों में
मदहोश करती है ये जुल्फ खुशबू बनकर
चाँद तारों से बात कर नींद आती नहीं है
रोज क्यों नहीं तू आती हो जुगनू बनकर
योंहि तन्हा कब तलक गुज़रेगा यह सफर
चुपके से ही आ जाओ तुम आरजू बनकर
क्यों बेजार हो गया अब महकता गुलशन
लाओ बहार चमन में बसंत ऋतु बनकर
लोरी तो सुनने से मरहूम रहता हूँ अब
सुना दो अपनी मधुर धुन घुँघरू बनकर
हर तरफ अँधियारा है किधर को जाऊँ मैं
कर दो सफर आसान तुम गुफ्तगू बनकर
हँस लेता हूँ जमाने से बस तुम्हारी खातिर
दर्द रिसता है मेरी आँखों से आँसू बनकर
कब तलक रखोगे मायूस तुम “निर्भीक” को
बरस जा अब तो ख्वाब ए चारु बनकर
प्रकाश
यादव “निर्भीक”
बड़ौदा
– 19.03.2016
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