अद्भुत छवि
की तुम तो धनी हो
प्यारी सूरत
सुंदर मूरत बनी हो
सुना जबसे
कोयल वाणी तुम्हारी
हृदय में
तबसे तो तुम्हीं बजी हो
लहराती जुल्फ
वो आँचल तुम्हारी
सावन की बहती
मदभरी हवा हो
भींग भी जाऊँ
गर बारिस में तेरी
अफसोस नहीं
तुम ऐसी घटा हो
पल पल
तुम्हें जो याद किया हो
मधुर कोमल वो
अहसास हो तुम
तप्त धारा की
हर आस तुम्हीं हो
सावन की हरित
बरसात हो तुम
नारी की है
सम्पूर्ण अदा समाहित
मुग्ध नयन
उन्मुक्त हंसी तुम हो
मन क्यों हुआ
है बाबरा फागुन में
महक उठा आँगन
वो कली तुम हो
सुन्दर बदन
चंचल चित लिए हो
बन कल कल
झरना सी बहती हो
बैठा नदी
किनारे थका पथिक मैं
मुख से क्यों
नहीं कुछ कहती हो
हार जीत
दोनों स्वीकार सफर में
मेरे ख्वाबों
की तो तुम मंजिल हो
पथ पथरीला
चुभन होगी पग में
फिकर कहाँ
इनकी जो गाफिल हो
सितारों सी
चमक तेरी बिंदियाँ में
मनमोहक सूरत
की मूरत हो तुम
क्यों भटकूँ
पथ से मैं हो विमुख
सृष्टि की
सम्पूर्ण औरत हो तुम
नीला अंबर है
सुशोभित तन में
प्रखर बुद्धि
से मुखरित हो तुम
“निर्भीक” है
तेरी हर अदा अब
हृदय से बहुत
ही द्रवित हो तुम
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 08.03.2016
No comments:
Post a Comment