स्याह है
सूनसान रात, बात तुम्हारी छिड़ गई
गायब है नींद
आँखों से, जज़्बात जो छिड़ गई
दिल शांत था
चुपचाप पड़ा किसी एक कोने में
अचानक आई याद
तुम्हारी मुझसे वो भीड़ गई
मंद
मंद बहती हवा मतवाली मौसम बरसात की
बाबरा
मेरे मन में तुम्हारी रंग हरियाली चढ़ गई
न
मधु न मधुशाला न है सुंदर साकी का प्याला
कौन
सा रस तुमने पिलायी रात में वो चढ़ गई
दूर
तुम अपनी दुनियाँ में चैन से अब सो रही
बेचैन
कर छोड़ अकेला क्यों ख़यालों में पड़ गई
गुलजार
था गुलशन गुल थी तुम मेरी जहां की
गलतफहमी
में क्यों अपना भँवरा से ही लड़ गई
प्रेम
तो है अनमोल रतन खरीद सका न कोई
क्यों
बगिया की कली को अधखिली ही छोड़ गई
बराबर
की गुनहगार हो तुम भी राहे उल्फ़त में
फिर
सारे गुनाह क्यों तुम मुझपर यों मढ़ गई
छोड़
दूंगा अब यह शहर सिर्फ तुम्हारी खातिर
गर
अपनी जिद पर फिर तुम ऐसे ही अड़ गई
फकीरी
जिंदिगी जीने को तो है माहिर “निर्भीक”
समझ
लेना फुलवाड़ी थी कभी वो यों उजड़ गई
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा -23-09-2015
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