Saturday, November 07, 2015

-:जीने का सहारा:-




हर बार की तरह
नहीं थे बाबूजी  
इस बार
बैठे दरवाजे में
इंतिज़ार में मेरे  
जिसका मुझे भी
बेसब्री से होता था
इंतिज़ार  
जिनसे मिलने को
मन आतुर रहता था
रास्ते भर
घर जाते समय
कि कब जीभर
देख लूँ एक नजर
पढ़ लूं उनकी आँखों में
वो उमड़ता स्नेह
जिसे पाने को
मन बेचैन रहता था
बगल में बैठते ही
भूल जाता था
दुनिया की सारी बातें
बस जी करता
जीभर बातें करूँ
दुनियाँ जहां की
जो बंद है महीनों से
मन के भीतर
बैठ उसी जगह
पहले की तरह
खोजने लगी सूनी आँखें
उनकी उपस्थिति को
जिसे न पाकर
निकल पड़े आँसू
अनायास आँखों से
याद कर उन अहसासों को
जिसे दे गए निःस्वार्थ
मेरे जीवन को
जीते जी जो
जीने का सहारा है
              प्रकाश यादव “निर्भीक”
              बड़ौदा – 09-09-2015

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