होकर सवार
कश्ती समंदर में खड़ा हूँ
आओ तुम करीब
इंतिज़ार में खड़ा हूँ
मरने की फ़िकर
तनिक नहीं जीवन में
तुम्हारी
खुशी के लिए तूफ़ान से लड़ा हूँ
बहुत हो गई अब
ये बेरुख़ी जमाने की
छोड़ जाने को
ये शहर जिद पे अड़ा हूँ
होगा सहर
मानो कभी तो अपना भी
रातभर उसी आस
में बेजान से पड़ा हूँ
मोहब्बत की
डोर तो अटूट है अपनी
भावनाओं के
नाजुक धागों से मड़ा हूँ
मर गई
इंसानियत अब दुनियाभर में
तभी मासूम को
देखा किनारे पड़ा हूँ
डूबते हुये
अपनों को आँखों से देखा है
ग्लानि बोझ
तले खुद ही में गड़ा हूँ
लड़ते हैं न
जाने किस धर्म की खातिर
देख खुदा का
घर उजड़ते मुक खड़ा हूँ
कहते है जो
खुद को खुदा का वारिस
आज उसी के
हाथ शूली पर चढ़ा हूँ
प्रेम से ही
तो बना है ये दुनियाँ कभी
गीता या
कुरान में भी यही तो पढ़ा हूँ
दे दो पनाह
बेघर बेकसुरों को “निर्भीक”
लहरों से भी
तो अपनों के लिए लड़ा हूँ
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 16-09-15
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