Saturday, November 07, 2015

-:गुमनाम:-





कहाँ गुमनाम
हो गई अचानक
मेरी दुनियाँ से
कहा करती थी
ताउम्र निभाऊँगी
रिश्ता तुम्हारे साथ
चाहे तुम जहाँ जाओ
कुछ मांगा भी तो नहीं
न मैंने तुमसे 
न तुमने मुझसे
बस छोड़ दिया
एक दूसरे पर
देने को सबकुछ
बहुत पीड़ा हुई थी
उस वक्त छोड़ते हुए
तुमको और तुम्हारे शहर को
कुछ दिनों तक ही तो
चला सिलसिला गुफ्तगू का
दरमियान हमारे
उस दिन के बाद
और फिर आज तक
न तुम्हारा फोन
न कोई संदेश
न तुम्हारी उपस्थिति
फ़ेसबूक अथवा
किसी अन्य माध्यम से
न तुमने कोई पता दिया
जिस पर लिख सकूँ
मन की बात को
कह दूँ तुमसे
तुम्हारा कहा हुआ
वो हर एक लब्ज़ 
जिस पर यकीन
मुझे ही नहीं तुम्हें भी था
गुजारे हुए उस
यादगार वक्त के साथ ...........
                  प्रकाश यादव “निर्भीक”
                  बड़ौदा – 16-09-2015

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