बिना जाने
तुम्हारी दिल
की
कह देता
हूँ
मन की अपनी
अक्सर
चाहे
अनचाहे
तुम्हारा
सिर्फ
“जी” कहना ही
मानो
मेरे लिए
काफी है
यह मानने को
कि तुम मेरे
हो
क्यों नहीं
आती
ये समझ
कि तुम्हारी
भी
कुछ सीमाएं
है
अपनी परिधियों
को
लांघ नहीं
सकते
तुम चाहकर भी
क्यों उमड़
पड़ते है
सारी
ख्वाहिशें
तुम्हें
देखते ही
क्यों आदत सी
पड़ गई है रोज
तुम्हें नये
रूप में
देख लिखने की
जबकि पता है
एक दिन तुम
भी
ऊबकर
किनारा कर
दोगे
अपनी दुनियाँ
से
जैसा होता
आया है
एकतरफा प्यार
का
एक अतृप्त अंत
इस जहां में
...............
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 03-09-2015
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