खिड़की से झाँकते हुए
आज सूनी आँखों से
निहार रही है वह
घर की ओर आती हुई
उन पगडंडियों को
जिनसे होकर आई थी
कभी प्यार की खुशबू
जिसमें खोकर वह
भूल गई थी कि
सपने कभी सच नहीं होते
वह तो एक छलावा है
मृग मिरीचिका सी
अपनापन सा अहसास
दे गया था कोई
उसे पलभर में
जो सपना हो गया
उस पल के बाद
बिखरे बालों में अभी भी
उनके अंगुलियों के पोरों के
अमिट निशान है
जो चेहरों से लिपटकर
याद दिलाती है उनकी और
उन मधुर पलों की
जो समर्पण की ओर
लेकर गई थी उसे अनायास
आज निढाल सी पड़ी
सूजी आँखों में दर्द लेकर
जिसे अपनों ने ही दिया है
घूंट लेती है चुपचाप
आंसुओं के खारेपन को
यादों की मिठास में
अपने प्रियतम आने की
एक अदद उम्मीद में
खुद को संभाल कर
निहार रही है फिर से
खिड़की से झाँकते हुए
उन पगडंडियों को
अपने अश्रुपूर्ण आँखों से ...
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा
– 19.05.2016
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