Saturday, June 04, 2016

-:साहिल से टकराकर :-


समंदर अक्सर  
टकराकर साहिल से
लौट जाता है
पुनः लौट आने को
टकराने साहिल से
नहला जाता है
अपने लहरों से
किनारे में बैठे
नवल जोड़ी को 
उन्हीं के ख़यालों में
भिंगोकर तर ब तर
और समेटकर ले जाता है
अपने आगोश में
उस खारे पानी को
जो टपकते रहते हैं
समंदर को देखते हुए
किसी की याद में
उस विरहन के
नयनों से अविरल  
जो कभी इसी तट पर
मिल बैठकर बनाया था
दरजिन चिड़ियाँ की तरह
ख्वाबों के तिनके से
एक छोटा सा घोंसला
बिना यह सोचे कि
आँधी में बेरहमी निहित है
उसे परवाह नहीं
किसी के ख्वाबों की
उसे तो बस आदत है तोड़ने की   
सपनों को बिना सोचे
भला हो इस समंदर का
जो सबके आंसुओं को पीकर
खुद नमकीन बन
मिठास देता है शांत होकर
सबके सपनों को
साहिल से टकरा टकराकर
अंबर और धरा के
अद्भुत मिलन के सानिध्य में .....
            प्रकाश यादव “निर्भीक”

            बड़ौदा -02-06-2016 

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