आज पता चला माँ से
मेरे गाँव की सगतोड़िया
नहीं रही अब इस दुनियाँ
में
इसी नाम से तो वह
बुलाई जाती थी अक्सर
जो एक संवादिया बनकर
लाती और ले जाती थी
माँ के संवादों को
वर्षों से
रिश्तेदारी में जीवंत स्वरूप
सुबह सुबह आ जाती थी
मेरे आने के भनक मात्र
से
मुसहरी टोला से टहलते
हुए
नंगे पांव खेतों से
होकर
जिसकी प्रतिक्षा में
रहती थी
पिछली मुलाक़ात के
बाद
बैठ जाती थी वह
देहरी में चौखट से सटकर
घंटों बातें करती रहती
माँ और मिक्की(मेरी
पत्नी) से
आत्मीयता और तन्मयता के
साथ
मानो कोई पुराना आपसी
मधुर रिश्ता हो इनका
मुँह में पान चबाती
सारी खबरें सुनाती रहती
आहिस्ता आहिस्ता
बातों की पोटरी खोलते
हुए
जिसे सहेजकर रखी है
सालभर से कहने के लिए
बीड़ी के सफ़ेद धुआँ में
अपने गमों को भुलाकर
हँसती हँसाती जीवंत
करती
माहौल को सबके लिए
और फिर कह देती
हक़ जताते हुए कि
“कनिया कि लाभलह
हमर खातिर शहर से”
फिर माँ दे देती हँसते
हुए
वह संदेश जिसे मिक्की
कभी नहीं भूलती थी लाना
हर बार की तरह
सगतोड़िया के लिए
ऐसा निःस्वार्थ अनूठा
प्यार
जो खत्म हो रहा है अब
जिंदगी के तेज रफ्तार
में
और टूट गई आज एक
संवेदना, करुणा व
ममता भरी स्नेह की डोर –
जीवन सफर में
सगतोड़िया के जाने से
........
(मुसहरी = जिस टोला में
मुसहर जाति के लोग मिलकर रहते है )
(कनिया कि लाभलह हमार
खातिर = बहू मेरे लिय क्या लायी हो )
प्रकाश यादव “निर्भीक”,बड़ौदा – 16.05.2016
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