कहीं सुदूर गाँव में
कर रही है इंतिज़ार
देहरी पर प्रेयसी मेरी
खुद को ओट लगाकर
हटाकर चेहरे से
उदासी का बादल
ताक रही है राहें
मेरे आने की बेसब्री से
और मैं दूर देश बैठा
देख रहा हूँ चाँदनी रात
में
अपने चाँद को
काले बादल के बीच
कुमुदनी मुस्कुराहट में
अकड़ जाते है नयन उनके
अपलक ताकते हुये शायद
जो कभी कभी
अविश्वास जगा देती है
उसके कोमल हृदय में
मेरे न आने का वजह
उसे भी पता है
विरह की वेदना में भी
एक अद्भुत मिठास होती
है
मिलन से कहीं ज्यादा
हरेक पल गुजरता है
उसी को निहारते सुबह व
शाम
मखमली एहसास लेकर
यह सोचते हुये कि
कब उन प्यासे आँखों की
प्यास बुझा दूँ जाकर
छू लूँ फिरोजी लबों को
अपनी बस एक अंगुली से
जब्त कर लूँ उनकी
अनुपम अदा को
जिससे इजहार कर रही है
अपने प्यार को बेकरारी
से ........
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 27.04.2016
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