कभी कभी तन्हा रहना पड़ता है
जख्म जिगर का पीना पड़ता है
चाहो जिसे कभी वो देखता नहीं
उनकी नजरों दूर रहना पड़ता है
वक़्त की नजाकत भी गज़ब है
अजीज से भी बिछड़ना पड़ता है
टूटे तारे फिर लौटकर नहीं जाते
आसमां को भी ये सहना पड़ता है
अकेला आया जहाँ में ये समझ
कभी हँसना कभी रोना पड़ता है
चंद मुश्किलात से तू हताश न हो
तंग गलियों से गुजरना पड़ता है
छोड़ जाना दुनियाँ मुनासिब नहीं
“निर्भीक” होकर ही रहना पड़ता है
प्रकाश
यादव “निर्भीक”
बड़ौदा
– 02.04.2016
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