Saturday, June 04, 2016

तन्हा

कभी कभी तन्हा रहना पड़ता है
जख्म जिगर का पीना पड़ता है

चाहो जिसे कभी वो देखता नहीं
उनकी नजरों दूर रहना पड़ता है

वक़्त की नजाकत भी गज़ब है 
अजीज से भी बिछड़ना पड़ता है 

टूटे तारे फिर लौटकर नहीं जाते
आसमां को भी ये सहना पड़ता है

अकेला आया जहाँ में ये समझ
कभी हँसना कभी रोना पड़ता है

चंद मुश्किलात से तू हताश न हो
तंग गलियों से गुजरना पड़ता है 

छोड़ जाना दुनियाँ मुनासिब नहीं
“निर्भीक” होकर ही रहना पड़ता है
                  प्रकाश यादव “निर्भीक”

                  बड़ौदा – 02.04.2016 

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