Thursday, June 23, 2016

-: अजनबी बनकर:-


सहेज कर रखो
अपने एहसासों को
पहले की तरह
अजनबी बनकर
एक दूसरे से
मत हटाओ आवरण
अपने संबंधो के
क्योंकि महफूज है वह
अपनी गुमनामी में
दुनियाँ की बुरी नजरों से
खिलने दो जज़्बातों के  
नन्ही सी कली को
प्रेम की बगिया में
और जी लेने दो
कुछ दिन अपनी जिंदगी
फिर कोई तोड़ लेगा उसे
बेरहमी से बिना सोचे
अपने प्यार के लिए
या फिर किसी आहूति हेतु  
गुनगुना लेने दो
मदमस्त भौंरों को
उनके इर्द गिर्द
अपने प्रेम राग की धुन में
बंद हो लेने दो
किसी सुहानी शाम को
पंखुड़ी आगोश में
न जाने अगली सुबह
घात लगाए कोई
कांटा चुभ जाये उनके
कोमल पंखों को चुपके से
परदे में रहने दो
हृदय की कोमल भावनाओं को
क्योंकि ढकी हुई सबकुछ
अक्सर अच्छी लगती है  
            प्रकाश यादव “निर्भीक”

            बड़ौदा – 09-06-2016 

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