Saturday, June 04, 2016

-: पहली मुलाक़ात में:-


सांझ की स्वर्णिम बेला में
आज भी ढूँढता हूँ मैं
तुम्हारी दमकती सिंदूरी आभा
जिसे देखा था मैंने  
बस कुछ पल के लिए
अपनी पहली मुलाक़ात में
सफर की डगर पर ।
डूबते सूरज की लालिमा में
खोजता हूँ तुम्हारे
मुखमंडल की झलक
जो आज भी कैद है
मेरे नयनों में
उस दिन के बाद
देखो न सूरज भींगों रहा है
खुद को अपनी ही धूप में  
झुलसने के उपरांत
समंदर में और
आतुर है जाने को
चाँद की शीतलता में
बेसुध होकर खो जाने के लिए  
नीले अंबर के नीचे 
चाँदनी पहर में रातभर  
निहारता हूँ शबनमी रात में -
तुम्हारा मुसकुराता चेहरा
चाँद से बातें करते हुए
सिर्फ तुम्हारे बारे में
कि मैंने भी तुम्हारी तरह
एक चाँद को पाया है
जिसने दिया है एक दिन
मखमली एहसास
ख्वाबों के चमन में
अपनी मौजूदिगी का
तुझमें तो दाग है मगर
मेरा चाँद बेदाग है  
गुलाब के पंखुड़ियों में पड़े
ओस के नरम बूंदों को
स्पर्श करता हूँ अंगुलियों से
तुम्हारे होंठों को महसूस करके
भोर हो जाने तक ............

            प्रकाश यादव “निर्भीक”, बड़ौदा – 18.05.2016 

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