खड़ी होगी फिर आज वह
पुराने किले के कोने
में
इंतिज़ार में मेरे
उस दिन की तरह
जब रिमझिम बारिश
लेकर आई थी मेघा
तपती दुपहरी धूप के बाद
सांझ की मधुर बेला में
चिड़ियाँ भी चहक रही थी
अपने घोसलों में लौटकर
उस झुरमुट के पीछे
जहाँ चुपचाप खड़ी थी वह
ओढनी में खुद को समेटे
साँय साँय हवा में
भींगती हुई सिकुड़ रही
थी
खुद में खुद को जकड़ी
ताक रही थी राह
थरथराते होंठों से मेरे
आने की
ललाट के लटों से
टपकते बुँदे होंठों को
छूकर
भिंगो रही थी
गेंहुनी तन बदन को
और अनायास मेरे
आने के आभास मात्र से
आकर पास लिपट गई थी
आगोश के गर्माहट में
आज फिर वह खड़ी होगी
उसी इंतिज़ार में
मेघा जो आई है फिर से
मुझे नेह निमंत्रण देने
जाने को एक बार फिर से
उसी पुराने किले में
जिसके कोने में
महक रही है आज भी
स्नेह समर्पण की खूशबू
...
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 13.05.2016
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