आज फिर तुमने
क्यों शृंगार किया
अपने नयनों से
मुझ पर वार किया
उलझकर तेरे गेसूओं से
अब तक निकल नहीं पाया
फिर क्यों तुमने
भींगे ज़ुल्फों से
जल बूंदों का
शीतल बौछार किया
देकर प्याला प्रेम का
शहर से कोसों दूर हुई
होकर ओझल मधुशाला से
खुद में तुम मगरूर हुई
आज फिर तुमने
क्यों मनमोहिनी सी
साकी का किरदार किया
रात कटी तन्हाइयों में
सलवटें बिस्तर की
करवटों से तार तार हुई
आज फिर तुमने
क्यों शबनमी भोर में
अलसाई मनुहार किया
पहनकर लाल वसन
तुमने जल विहार किया
लेकर लाली होंठो पर
मधुपान को अस्वीकार किया
फिर क्यों तुमने
मधुमास की मधुरिमा में
मधुरस का फुहार किया
विरह मिलन की
तपी धूप में ---
मैंने सब अंगीकार किया
कहो फिर क्यों तुमने
नेह का इजहार किया
आज फिर तुमने
क्यों शृंगार किया
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 07-06-2016
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