वह निहार रही है आज
खड़ी दीवार से सटकर
उसी राह को
कथई साड़ी में
खुद को लपेटकर
शालीनता के साथ
जिससे होकर गया था
प्रियवर आने के लिए
उसके चेहरे की आभा
होंठों की कुमिदिनी
हंसी
कानों में कुंडल
मानो सब साथ हो
उसकी प्रतीक्षा की घड़ी
में
पर -----------
न कोई हार गले में
न कोई गजरा बालों में
न कंगन हाथों में
वह तो मिट्टी की
एक सजीव अद्भुत कृति है
प्रकृति की अनुपम भेंट
सादगी की मूरत
मनमोहिनी सूरत
कह रही हो प्रियतम से
मैं तो जस के तस
आज भी खड़ी हूँ
उसी मुद्रा में तुम्हारे
लिए
जिसमें तुम्हें विदा
किया था
न चाहते हुए भी
खुद से दूर
जब लौटकर तुम आओ
तो मुझे वैसे ही और
उसी मुद्रा व वेश में
पाओ
जो तुम्हारे आँखों में
चित्रित हुआ था जाते
हुए
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा - 04.05.2016
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