तुम कहती थी न
कि क्या मैं याद रखूँगा
तुमको भविष्य में
तुमसे और तुम्हारे शहर से
दूर बहुत दूर
चले जाने के बाद
क्या मैं भूल जाऊंगा
तुम्हारे हाथों से
बनाये
मेरे मन पसंद
खाने का स्वाद
जिसे तुमने बड़ी
तल्लीनता के साथ
बनाया था उस शाम को
सिर्फ मेरे लिए
जिसमें निःस्वार्थ प्रेम और
समर्पण भावना की
एक महक थी
साफ झलक रही थी
तुम्हारे चेहरे पर
प्रेम शिखा की उदासीनता
जिसका कोमल तरु
कुछ दिनों पहले ही तो
अस्तित्व में आया था
हमारे बीच दुनियाँ में
खाना तो महज
एक बहाना था तुम्हारा
मुझे अपने पास बुलाने का
जबकि तुम जी भर
देख लेना चाहती थी मुझे
उस दिन आखिरी बार
अश्रु पूरित आँखों से
फिर कभी न मिलने के
खौफ को लेकर
जो मुझे आज भी याद है
तुम्ही कहो कोई कैसे
भूल सकता है
उस मासूम प्यार की
मासूमियत को ..........
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 06.04.2016
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