एक ही बार तो
मिली थी वह
कृष्णाष्टमी के मेले में
कनखी से देखकर
मुस्कुरायी थी
राधा की मूर्ति की ओट
से
जो अपने प्रियतम के
सान्निध्य में खुश थी
आँखों में अगाध प्रेम लिए
और वह मान बैठी
खुद को मेरी राधा
कई बार कोशिश की मैंने
उसे समझाने की
कि राधा ही क्यों
कुछ और क्यों नहीं
बनने की है कामना
राधा तो आधा है
सम्पूर्ण क्यों नहीं
बनना चाहती हो तुम
मगर हर बार वो
नकारती रही और
कहती रही कि
प्रेम खुद में ही
सम्पूर्ण है कहाँ
उसका निर्माण ही
ढाई आखर से
अपूर्णता में -
जो अस्तित्व है प्रेम
का
इसलिए राधा ही बनकर
करना चाहती हूँ प्रेम
अपने कृष्ण को
ढाई आखर प्रेम का
अदृश्य और अद्भुत
मूल मंत्र के साथ
ताउम्र तुम्हारी होकर
.....
प्रकाश
यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 16.04.2016
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