नहीं कहूँगा तुम्हें
अब लौट आने को
उस दुनियाँ में
जहां से डगर के
दो फांक हुए थे
अनचाहे मन से
हम एक दूसरे को
मुड़ मुड़कर देखते हुए
निकल पड़े थे
अपनी अपनी डगर
समाज के उस डोर में
जकड़ कर जिसे
तोड़ पाने की हिम्मत
न तुझमें न मुझमें थी
अपने संस्कारों के
परिधि को लांघते हुए
तुम्हारी खुशी में
मेरी भी खुशी थी
यही तो सोचा था
तुम्हारा मुझसे
विलग होते हुए
क्या हुआ हम
हमराह बनकर
सफर में न चले
राहगीर तो है
उसी डगर के
जिसकी मंजिल एक है
अपने अपने सपनों को
सँजोते हुए कभी
एहसासों के बगीचे में
बैठ कर लेंगे हम
दो चार अनकही बातें
अनजान मुसाफिर की तरह
और फिर बिछड़ जाना है
कभी मिलने की उम्मीद
में
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 25.05.2016
No comments:
Post a Comment