चिलचिलाती धूप में
जल रहा है तन बदन
सूख रही है नदियां सारी
आस लगाये है नयन
छटपटाती है ये
पंक्षियाँ
मेघाच्छादित पवन
को
ठौर नहीं मिलती है कहीं
सुकून भरी कोई आशियाँ
सबके मुंह से एक
आवाज
आ जा मेघा बरस जा तू
शीतल कर दे तन बदन
भींगने को तेरी बाहों
में
आतुर है हृदय आँगन
तर कर दो आकर तुम
झूमेगा फिर मयूर मन
खिल उठेंगे चहुं ओर तब
वीरान पड़ी है जो उपवन
मेघा तू बरस जा जाकर
किसी किले में खड़ी
मेरी प्रेयसी पर और
भिगो दे उसे इस कदर कि
मेरे दूर होने पर भी
मेरे पास होने का
एहसास हो उसे
अपने तन बदन में
उस बिजली की तरह जिसे
समेटकर तुम रखती हो
बरसते हुए घनघोर बारिस
में
मैं उनके लटों से
टपकते बूंदों में
नहाता हुआ निहारता रहूँ
अपनी मेघा को
मनमोहक रिमझिम बारिस
में
आ जा मेघा बरस जा तू
प्रकाश यादव “निर्भीक”
बड़ौदा – 12.05.2016
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